श्रीगुसांईजी जन्म उत्सव

कैसे कहा जा सकता है कि कृपा यह परमात्मा स्वभाव है या

सामर्थ्य, या इन दोनों से भिन्न एक अकस्मात् उठी तरंग ही !

क्या स्वयमेव परमात्मा जानता होगा कि वह क्यों किसी पर

कृपा करता है और क्यों किसी पर नहीँ ? या कहीं ऎसा तो

नहीं कि वह स्वयम् ही इस कृपा के रहस्य को न जान पाता हो !

शास्त्रों में सदभाव – दुर्भाव, सन्मति – दुर्मति, सदाचरण – दुराचरण,

पुण्य – पाप एवम् सुख – दुःख की मर्यादाओं का निरूपण मिलता है.

जितना अधिक इन विधि – निषेधों पर विचार किया जाये उतना

हमें ऎसे लगेगा कि इन भेधों पर आधारित कृपा के कुछ नियम अवश्य

होने चाहिए. परन्तु जब पुराणों में भगवान् की कृपा के अनेक

उदीहरणों पर दृष्टि पड़ती है तो लगता है कि कोई निश्चित नियम

कृपा का बंध नहीं पाएगा. घबरा कर सोचने को विवश होना पड़ता

है कि कृपा भगवान् की बाँधी हुई मर्यादा या नियम नहीं है. कृपा

तो भगवान का स्वभाव ही होना चाहिए जो बिना किसी नियम की

परवाह किये प्रकट हो जाता है. परन्तु फिर हम चूक जाते हैं, तर्क से

परमात्मा के स्वभाव को निर्धारित करने के मोह में !

 

यदि कृपा परमात्मा का स्वभाव है तो वह यत्र – तत्र नहीं किन्तु सर्वत्र

प्रकट होना चाहिए क्योंकि परमात्मा सर्वत्र विध्यमान है—सर्वसाक्षी है

सर्वान्तर्यामी है—सर्वफलदाता—कर्ता – कारियता है—तो उसकी

कृपालुता भी सर्वत्र प्रकट होनी चाहिए ! पर होती नहीं !

 

सागर में लहरें तो निरंतर उठती रहती हैं पर कौन सी लहर छोटी उठेगी

और कौन सी बड़ी, कितने क्षणों के अंतराल के बाद उठेगी – कैसे कहा जा

सकता है ? सागर में निरंतर उठती लहरों की लय और उनकी मात्राओं को

कौन गिन सकता है ? कैसे हम सागर के तट पर जल और थल के बीच एक

निश्चित सीमारेखा खींच पाएंगे ? जो कुछ कहा जा सकता है, वह इतना ही

कि कभी किसी लहर को हमने यहां तक आते नहीं देखा, परन्तु ‘नहीं आ

पाएगी’ ऎसा आश्वासन दिया नहीं जा सकता, शास्त्रीय मर्यादाओं की

प्रमाणिकता भी इतनी सी ही है.

Suvichar :

तातें निधिरूप श्रीकृष्ण है तैसेंही निधिरूप भगवद्भावकोंजानि

लौकिक दुःसंगतें निश्चय रक्षा कर्त्तव्य है , यह पुष्टिमार्गकूं जो

अनुकूल होय ताको संग्रह और प्रतिकूल होय ताको त्याग

करनो येही श्रीआचार्यजीकी आज्ञा है ।।

 

हरिकृष्णमें प्रथमकी नांई स्नेह स्थापन करनो , पुष्टिमार्गीय

तादृशीय वैष्णव होय तिनहीसों गोष्ठी प्रयत्नकरिकें करे ,

उनसों मिलिकें पुष्टिमार्गको भाव विचारे , तो हृद.में भहवद्भाव

अचल होय, तातें अवश्य भगवदीयको संग कर्त्तव्य है ।।

Kirtan :

श्रीगुसांईजी जन्म उत्सव

        रागः नट                                                        केसेटः६४

जोपें श्रीविठ्ठल रूप न धरते ।।जोपें श्रीविठ्ठल रूप न धरते ।।

तो केसेंके घोर कलियुग के महापतित निस्तरते ।।१।।

सेवारीति प्रीति व्रजजनकी श्रीमुखतें विस्तरते ।।

श्रीविठ्ठलनाम अमृत जिन लीनों रसना सरस सुफलते ।।२।।

कीरातविशद सुनी श्रवणन विषय विष परहरते ।।

गोविंद बल दर्शन जिनपायो उमगउमग रसभरते ।।३।।

भावार्थ:

यदि श्रीविठ्ठलनाथजी जैसे प्रभु प्रकट नहीं होते , तो किस

प्रकार धोर कलयुग में महापतित जीवों का उद्धार होता ?

स्वयं प्रकट होकर ब्रज के जीवों को सेवा में रीति एवं प्रीति

(प्रेम लक्षणा भक्ति) का विस्तार किया है । जिन्होंने श्रीविठ्ठलनाथजी

की शरण का अमृत पान किया है उन्हीं जीवों ने अपनी जिह्वा

को सार्थक किया है । जिन जीवों ने उनकी महिमा को सुना है

जिससे जीवों का विषय रूपी विष नष्ट हो गया है । श्रीगोविन्दस्वामीजी

कहते हैं कि ऎसे प्रभु का जिन्होंने दर्शन प्राप्त किया वे प्रसन्न होकर

के रसपान कर रहे हैं ।।