NAVRATRI

navratriवे किसकी सेवा स्वीकारेंगे और किसकी नही यह कैसे निश्चित

किया जा सकता है ? कैसे कोई सिद्धान्तहम भगवान् के बारे

में बांध सकते है ? और हमारे बांधे हुए सिद्धान्तों के बन्धन में

भगवान कितने बंधपायेंगे ? हमारी इस क्षुद्र बुद्धि से धड़े गए

सिद्धन्तों की सीमा में यदि भगवान को घेरा जा सकता होता

तो मुझे तो उनके सर्वेश्वर होने में ही संदेह हो जायेगा !

भक्त कवि नरसी महेता कहते हैं :

                ‘हूं करूं !’ ‘हूं करूं !’ एज अज्ञानता

                  शकटनो भार जेम श्वान ताणे !

गाँव के लोग कहीं जाने को जब बैलगाड़ी में निकलते हैं तो

कई बार उनका कुत्ता भी साथ हो लेता है .बैलगाड़ी के साथ

आगे – पीछे या आजू – बाजू दौड़ते रहना पड़ता है उस कुत्ते

को. परन्तु कभी इस कुत्तेको यह भ्रान्ति हो जाए कि मेरे चलने

के कारण यह बैलगाड़ी चल रही है (!) तो यह कितनी विचित्र

कल्पना कहलाएगी ? ठीक उसी तरह हमारा यह सोचना कि जो

सिद्धन्त हमारी क्षुद्रहुद्धि से ठीकठाकलगते हो ईश्वरीय व्यवहार भी

बस उसी सिद्धन्त की चौखट के भीतर चलना चाहिए ! यह तो

बिल्कुल‘शकटनो भार जेम श्वान ताणे’ है.

        ‘सर्वसमर्थ’ का अर्थ

अतएव भगवान् के सर्वसमर्थ होने का मतलब ही अपने यहें यह

कहा जाता है कि भगवान् कर्तुम् – अकर्तुंम् – अन्यथाकर्तुम् समर्थ है.

एसी स्थिति में भरवान् ब्रह्मसंबंध के बिना भी किसी के द्वारा

की जाती सेवा स्वीकारते हों तो उन्हें रोका या टोका तो नबीं

जा सकता ! और ब्रह्मसंबंध लिए हुए व्यक्ति की भी सेवा

स्वीकारते हों तो उन्हें बाधित भी नहीं किया जा सकता है.

और न कोई आक्षेप ही लगाया जा सकता है.

यदि हम भगवान् को सर्वसमर्थ मानते हों तो हमारे साधनों के

बन्धन के भगवान् को बाँधा नहीं जो सकता. हमारे साध्य – साधन

के नियम यदि भगवान् के लिए बन्धनकारी होते हों तो सारी बात

खतम हो गई ! क्योंकि तब तो भगवान् सर्वसमर्थ नहीं रहे !!

Suvichar :

नायक वह होता है जो सही समय पर किसी की जान

बचाने के लिए आगे आता है।

वह अपना जीवन अच्छे कामों को समर्पित कर देता है।

आम जिंदगी में भी कुछ लोग ऐसे ही होते हैं।वे दूसरों की

मदद के करने के लिए अपनी परवाह नहीं करते। कई बार

वे अपनी जान भी दांव पर लगा देते हैं।

Kirtan :

मुरली के पद

राग : बैरागी                                       केसेट : २०

जबही मुरली अधर लगावत ।।

अंग अंग रस भर उमगत हैं ,

तातें पुनि पुनि भावत ।।१।।

औरें दशा होत पलकन में,

अगम प्रीति परकासत ।।

तब चितवत काहु तन नाहीं ,

जबहिं नाद मुख भाषत ।।२।।

ग्रीव नवाय देत है चुन्बन ,

सुन धुनि दीशा बिसारत ।।

सुर मुरछि लटकत ताही पर ,

ताही रहस बिचारत ।।३।।

भावार्थ:

ज्यों ही मोहन मुरली को ओंठ से लगाते हैं उनका

अंग प्रत्यंग प्रेम रस में भरकर उमँगने लगता है ।

ईसी से वह बंसी उन्हें हर बार प्रिय लगती है ।

क्षर भर में ही अगम्य प्रेमको प्रेमको प्रकाशित

करनेवाली विचित्र दशा हो जाती है । मुखसे गान

करते समय वे किसी की ओर नहीं ताकतें । बस

गर्दन झुकाकर उस बंसी को चुम्बन देते हैं , और

उसकी ध्वनि सुनकर अपनी दशा भूल जाते है ।

वे मूर्छित से होकर उसी पर झुक जाते हैं , उसीके

माधुर्य रसमें डूब जाते हैं , और उस रहस्य को

विचारते रहते हैं । ऎसे सूरदासजी बता रहे हैं ।।