janmashtami

हरेर्दास्यं धर्मः

उस रोज मंदिर में हुई सभा में एक भाई नें प्रश्न रखा था कि ‘ब्रह्म सम्बन्ध

दीक्षा लिए बिना यदि कोई भगवत्सेवा करता हो तो क्या ऎसी सेवा भगवान्

स्वीकार नहीं करेंगे ?’

मैंने उत्तर दिया था कि ‘आप सेवा करते हो’

इस पर उन्होंने पुनः प्रश्न पूछा कि ‘इसका मतलब तो यह हुआ कि ब्रह्मसम्बन्ध

की दीक्षा लेना अनिवार्य नहीं है !’

आपको याद होगा तब मैंने यह कहा था कि ‘यदि ब्रह्मसम्बन्ध के बिना ही कोई

भगवत्सेवा निभाना चाहता हो तो ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा अनिवार्य नहीं है ’साथ ही

साथ यह खुलासा भी मैंने कर दिया था कि ‘भगवान को किसी की या कैसी सेवा

स्वीकारनी चाहिए और किसकी नहीं यह निर्धारित कर पाना किसी के भी बस की

बात नहीं है. भगवान ने गाली देने वाले शिशुपाल का भी उद्धार किया था – विषपान

करानेवाली पूतना को भी मुक्तिदान किया थाः

                                     अहो बकीयं स्तनकालकूटं

जिघासयापाययदप्यसाध्वी ।

                                     लेभे गतिं धात्र्युचिता ततोन्यं

                                     कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ।।

धाय का पाखण्ड करनेवाली इस असाध्वी पूतना की बात सोचो कि जिसने कृष्ण

को मार डालने की इच्छा से अपना विषलिप्त स्तन उन्हें पिलाया . गति उसे

भगवान ने परन्तु वही दी कि जो एक धाय को दी जानी चाहिए थी. अब आप

बताओ कि और किस दयालु की शरण में हमें जाना चाहिए !

जो विषपान कराने आई थी उसे वह गति मिली जो पयःपान करानेवाली माता

या धाय को दी जाती है ! एसे दयालु हैं भगवान !

Suvichar :

मन में अलौकिक गहनता के साथ भगवान की सेवा धर्मशास्त्र (कथा)सत्संग

किया जा सकता है, तथापि यह अगर भौतिकवादी दुनिया में

तबदील किया जाता है तो वह निश्र्चित रूप से प्रतिरोधी हैं.

दुनिया के साथ संबंध आध्यात्मिक दृष्टि के साथ बनाया जो सकता हैं ,

भगवान (भगवदीय) के भक्तो के साथ रिश्ता दिव्य दृष्टि (भगवद दृष्टि)

का साथ बनाया जा सकता हैं.

Kirtan :

                                          पलना के पद

रागः भैरव                         तालःचंचेरी                            केसेटः ५६

लालयति दोलिका मंच शयनम् ।।

तिलक गोरोचनं भाल मुक्ताफलं कुटिल कुंतल मुखं चकित नयनम् ।।१।।

चरण संचालनं मोद भरगायनं प्रतिबिंब दर्शनेन मूदुल हासम् ।।

बाललीला परमपद सुनूपुरधरं भाषणोत्फुल्ल नासाविकासम् ।।२।।

अंगुष्ठ चोषकं दूढरस पोषकं स्वल्प संतोषकं कृष्णचंद्रम् ।।

गोपिका जनमनोमोद संपादनं तदभिलषिता कृतौ विगततंद्रम् ।।३।।

 

पलना के पद प्रायः नंदमहोत्सव के दिनसे राधाष्टमी के दिन तक नित्य

प्रभु के पलना के समय किये जाते हैं ।

 

भावार्थ:

यशोदामैया अपने बालकृष्णको पलनेमें शयन कराती हुई ,

लाड लड़ा रहीं है । भाल पर गोरोचनका तिलक और घुँघरानेबालोकी

अलकावली मोतियों से(=मुक्ताफल) शोभित हैं । कभी कभी मुँह बनाते

है , चकित नयनों से इधर उधर देखते है । उनका पैर चलाना (=चरण

संचालनं) प्रसन्नता से कुछ कुछ गाना, अपना प्रतिबिंब देखकर मीठा

मधुर हँसना बाल सुलभ (लीला) क्रीड़ा करना , चरणोमें सुंदर नुपुर

धारण करना , बोलते समय प्रफुल्लित नासिका फूलना , अंगूठा चूसना,

का विचार कर रहे हैं । सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाले प्रभु का प्राकट୍य

उसके अन्तर्गत गूढरसका पोषण करना, थोढेसे में ही संतुष्ट हो जाना,

एसी चेष्टाएँ करते हुए कृष्णचंद्र , गोपीजनके मनके आनंदका संपादन

करते हुए , उनकी ईच्छानुसार कभी निंद्रदेवी की गोदमें चले जाते हैं ।

(=विगततंद्रम् )