जो मोक्ष को भी एक झंझट मानकर केवल भक्ति ही निरंतर करते रहना चाहते हों उन्हें
पुष्टिभक्त समझना चाहिए. अतएव वृत्रासुर कहता हैः
न नाकपृष्ठं न च पारमेठयम्
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धिः अपुनर्भवं वा
समंजस त्वा विरहय्य कांक्षे ।
न मुझे स्वर्ग चाहिए और न ब्रह्मा की पदवी ही. न इस भूतल पर चक्रवर्ती सम्राट बनना
चाहता हूं और न पाताल का अधिपति ही. न मुझे योगसिद्धियों की किसी तरह की कामना
है और न मोक्ष की ही. मेरे लिए तो सभी कुछ तू है सो तेरे सिवा मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए !
यह भक्त की वाणी है ! भगवत्कृपा के बिना, श्रीमहाप्रभु के अनुसार, मानव हृदय में ऎसी भक्ति
का प्रादुर्भाव शक्य नहीं है. वृत असुर है तो क्या हुआ? है वह पुष्टि भक्त !
पुष्टिमार्गीय चार पुरुषार्थ
जैसे प्रस्तुत चतुःश्लोकी में पुष्टिमार्गीय धर्म, अर्थ, काम एवम् मोक्ष पुरुषार्थो का वर्णन है , वैसे ही
पूर्वोक्त वृतासुर – चतुःश्लोकी के भी चार श्लोकों में पुष्टिमार्गीय धर्मार्थकाममोक्ष का निरूपण श्रीमहाप्रभु
स्वीकारते हैम. वहां व्याख्या में एक संग्रहश्लोक दिया गया हैः
पुष्टिमार्गे हरेर्दास्यं धर्मोर्थो हरिरेव हि ।
कामो हरिदिदृक्षैव मोक्षो कृष्णस्य चेद् ध्रुवम ।।
भगवान श्रीहरि की दास्यभाव ले भक्ति पुष्टिमार्गीय धर्म है. पुष्टिमार्गीय अर्थ स्वयमेव श्रीहरि है.
पुष्टिमार्गीय काम हरिदर्शन की लालसा है. जब किसी जीवात्मा का परमात्मा पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण
के साथ सम्बन्ध पूर्णतया जुड़ जाता है तो वह पुष्टिमार्गीय मुक्ति है.
पुष्टिमार्गीय धर्म क्या है ? श्रीहरि का दास्यभाव से भजन, श्रीहरि के प्रति अपने दासत्व की स्वीकृति
किस प्रसंग में हम प्रकट करते है ? पुष्टिमार्गीय दीक्षा ब्रह्म सम्बन्ध के प्रसंग में श्रीहरि के प्रति हमारे
दासत्व की स्वीकृति को हम प्रकट करते है. यह जो कहा जाता है कि ब्रह्म सम्बन्ध की दीक्षा लेने के
बाद पुष्टिमार्ग में भगवत्सेवा आवश्यक हो जाती है उसका भी रहस्य यही हैः ‘पुष्टिमार्गे हरेर्दास्यं धर्मः
Suvichar :
भगवान समान लोगोको एक दूसरे से मिलाते है. यदि हम हमारे
परमेश्वर के सही शुद्ध भक्त हैं, तो भगवान हमें उसी तरह का
संग देता है.
भगवान अपने भक्त कि भौतिकवादी इच्छा अच्छी तरह से उनकी कृपा के
साथ, और आध्यात्मिक चाहत, वह स्वाभाविक रूप से पूरा करता है.
प्यार समान लोगों के बीच होता है.
Kirtan :
तालः धमार रागः ईमन केसेटः १२
रमकझमक झूलनमें ठमक मेह आयो,नहि सुरझत बातनतें ।।
नवपल्लव संकुलित फुलफल वरन वरन ,
द्रुमलतान तर ठाडे भये,भयोहे बचाव पातनतें ।।१।।
मंदमंद झुलवत खंभनलगि,ओढें अंबर निजगानतें ।।
कृष्णदास गिरिधारी दोऊ भीज्यो वागो सारी भ्रमरन की भीरभारी,
टारी न टरत क्योंहुं प्रक्टी छबीली छटा निज गातनतें ।।२।।
भावार्थ:
वर्षाऋतु के दिननमें संध्यासमे प्रभु को हींडोरा झुलाया जाता है, यह पदमें कृष्णदासजी का श्रीठाकुरजीऔर श्रीस्वामीनीजी परस्पर बातनमें प्रेम विवश हो गये है ऍसे दरसन होत हैं ।।
प्रिया प्रियतम रमक झमक झूल रहे है । तब ही अचानक मेह आयो लेकिन प्रेम की बातोमें समग्न प्रिया-प्रियतम अलग नही हो रहे हैं । रसभरी बाते करते हुए तृप्ती नहीं पा रहे हैं । नए पत्तों और रंगबिरंगे फूल-फल के नीचे (तर) खडे हैं । इसलिए थौडे पानी से बच सके । सखिया चुँदरी ओढे खंभोके पास खडी मंद – मंद झुला रही हैं ।।
प्रभु का वागा तथा राघाजी की साड़ी पूरी भीग गई हैं । उनके सौन्दर्य के रसपान के लिए भौरा(भ्रमर)की भीड़ लग गई है जो हटानेसे भी हट नहीं रहे हैं ।।
ऐसा लगता है कि शोभायुक्त छबिकी छटा शरीर धारण करके प्रगट हो गई हो ।।