Snan Yatra !!

snan_yatraयह बात और है कि मुक्ति का स्वरूप प्रत्येक के मत में भिन्न भिन्न होता है. मुक्ति के स्वरूप के बारे में इतनी वैचारिक भिन्नता उन-उन विचारकों के मत में दुःख या बन्धन का स्वरूप क्या है इस पर निर्भर करती है. जीवात्मा की कैसी अवस्था को, किन विषयों को, किन सम्बन्धों को, किन आवश्यकताओं या कामनाओं को; अथवा निज की किन सीमाओं को आप दुःखरूप या बंधनरूप मानते है ? दुःख या बन्धन से मुक्त होना ही मोक्ष पुरुषार्थ है.

किन्ही लोगों के लिए शारीरिक, पारिवारिक या सामाजिक कष्टों से छुटकारा पाना ही मोक्ष हो सकता है. आधुनिक युग में सभी राजनीतिक नेता इसी मुक्ति की ठेकेदारी के विभिन्न वाद और दावे प्रस्तुत करते हैं.इनकी अपनी एक साम्प्रदायिकता तथा छुआछूत होती है!

एक अन्य बुद्धिवादी (!) वर्ग प्राचीन सभी धार्मिक, साम्प्रदायिक एवम् दार्शनिक आस्थाओं से मुक्त होने में अपने मोक्ष पुरूषार्थ की कल्पना करता है. क्योंकि इनके अनुसार विभिन्न धर्म-सम्प्रदाय ही मानव-समाज में सभी तरह की अशान्ति और संधर्ष फैलाने की वृति को बढ़ावा देते हैं. ये इसी मुद्दे पर एक निर्णायक संधर्ष कर लेना चाहते हैं (!) मानवमात्र को धर्ममुक्त करने के लिए.

कुछ फेशनेबल लोग हर प्राचीन रूढ़ि से मुक्त होने में ही अपनी फेशनेबल मुक्ति मानते हैं.

कुछ वक्ता कहते हैं कि अपनी निज पहचान को भुला पाने में ही अपनी मुक्ति है.

कुछ इस समुचे संसार को ही बन्धन मानकर , इससे छुटकारा पाने में अपनी मुक्ति मानते हैं. क्योंकि इस संसार में शाश्वत सुख की सम्भावना नहीं है. यहां के हर सुख के साथ किसी न किसी तरह का दुःख जुड़ा हुआ ही है.

कुछ लोग इस तरह की अनेकविध मुक्ति की कामनाओं को ही सबसे बड़ा बन्धन मान कर मुक्ति से मुक्त होना चाहते हैं!

Suvichar :

अपने सेव्य- स्वरूपकी सेवा आप ही करनी. और उत्सवादि
समयानुसार,अपने वित्त अनुसार करने, वस्त्राभूषण भांति-
भातिके मनोरथ करी सामग्रीकरनी.

Kirtan :

नावके पद
राग : सारंग                          केसेट नं. ८९
बैठे धनश्याम सुंदर खेवत हें नाव ।।
आज सखी नंदलालके संग खेलवे को दाव ।।१।।
पथिक हम खेवट तुम लीजियें उतराई ।।
बीच धार मांझ रोकी मिषही मिष डुराई ।।२।।
यमुना गंभीर नीर अति तरंग लोलें ।।
गोपिन प्रति कहन लागे मीठे मृदु बोलें ।।३।।
नंदनंदन डरपत है राखिये पद पास ।।
याही मिष मिल्यो चाहे परमानंददास ।।४।।

भावार्थ:

प्रायः ग्रीष्म ऋतुमें श्रीयमुनाजीमें जलविहारकी लीला प्रभु करते है । तथा उस समय प्रभु नौकाविहारकी लीला भी करते हैं । उस नौकापिहारकी लीलाका वर्णन परमानंददासजी कर रहे है ।

श्री यमुनाजीमें श्रीकृष्णके नौकाविहारके दर्शन करते करते वृजभक्त सोच रहे है कि श्रीकृष्णके संग उनको भी क्रीडाका आनंद प्राप्त हो रहा है ।

गोपीजन प्रभुको कह रहे है कि आपतो प्रभु खुद खेवट है तथा गोपीजन खुदको पथिक गिना रहे है तथा प्रभुको नांवसे दूसरे पार (किनारे) उतारनेकी विनंति कर रहे है । प्रभुभी लीलार्थ नावको मझधारमें रोकके गोपीजनको डरानेके बहाने हिला रहे है ।

यमुनाजीके नीर गंभीर है तथा उनके तरंग चंचल है तब गोपिनको कुछ मीठे वचन बोल रहे है ।

तब परमानंददासजी वर्णन करते कह रहे है कि अचानक गोपीजन प्रभुको विनंति कर रहे है कि वे सब नाव डोलनेके कारण डर रहे है । ईसलीये खुदको प्रभुके चरणके पास रखनेकी विनंति कर रहे है क्योंकि वे सदा प्रभुको मिलनेके (पानेके) बहाने ढूंढते रहते है ।

यहां उनका प्रभुके प्रति प्रेमका भाव प्रकट होता हैं ।