Sharad Purnima !!
ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा की आवश्यकता
फिर भी पुष्टिमार्ग में ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा को आवश्यक माना गया है .
अतः ‘भगवत् सेवा का अधिकार ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा के बिना प्राप्त
नहीं होता’ यह भी कहा जाता है . बात वह कैसी अटपटी लगती है !
है न ?
कुछ स्पष्टता यहाँ अपेक्षित है . पुष्टि और पुष्टिमार्ग के बीच जो भेद है
उसे भलीभाँति यदि हम समझ पाएं तो यह बात इतनी अटपटी नहीं
लगेगी .
पुष्टि और पुष्टिमार्ग
‘पुष्टि’ शब्द का अर्थ है : भगवान की कृपा . ‘पोषणं तदनुग्रहः’. परमात्मा
की कृपा ही जीवात्मा का सच्चा पोषण है . अन्न से जैसे हमारे देह का
पोषण होता है . पृथ्वी,जल,तेज,वायु से जैसे वृक्षो का पोषण होता है .
आचरण से जैसे विचारों का पोषण होता है . ठीक उसी तरह परमात्मा
की कृपा भी जीवात्मा का सच्चा पोषण है . इस आध्यात्मिक – आधिदैविक
पोषण को ही श्रीमहाप्रभु ‘पुष्टि’ कहते हैं .
हम पृथ्वी,जल,तेज या वायु से यह नहीं कह सकते कि वे कदम या आम्र के
वृक्षो का तो पोषण कर सकते है पर करील या बबूल के वृक्षो का नहीं .
सभी तरह के वृक्ष एवम् वनस्पतियों का पोषण पृथ्वी-जल-तेज-वायु से
होता है . सभी वृक्ष , सभी वनस्पतियाँ , सभी प्राणियों के देह , इन्ही
पाँच तत्व पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश के असंख्य नाम और रूप हैं .
कदम की सुन्दरता या करील कुरूपता का सिद्धान्त प्रकृति में नहीं है—
वह तो हमारे मन की उपज हैं . हमारे सुख – दुख या हमारे लिए इनकी
उपयोगिता – अनुपयोगिता सें जुड़ी हुई ये धारणायें हैं . पृथ्वी,जल,तेज,
वायु या आकाश की प्रकृति में सभी कुछ स्वाभाविक है . प्रत्येक वस्तु में
प्रत्येक नाम एवम् रूप की उत्पत्तिस्थिति में उपचयअपचय में वृद्धिह्रास
में या सन्ततिविनाश में—एक अव्यकत्त आनंद व्यक्त हो रहा है . न सुख
और न दुख, न सुरूपता और न कुरूपता, न श्रेष्ठता और न हीनता, न
शुचिता और न अशुचिता, न पुण्य और न पाप.
Suvichar :
उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये ।
जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी
को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय
मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा
में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो–वे
जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।
स्वामी विवेकानन्द
Kirtan :
शरद पूर्णिमा
रागः केदारो केसेटः२९
पूरीपूरी पूरणमासी पूर्यौ पूर्यौ शरदकौ चंदा ।।
पूर्यौ है मुरली स्वर केदारो कृष्ण संपूरण
भामिनी रास रच्यौ सुख कंदा ।।१।।
तान मान गति मोहन मोहे कहियत औरही मन मोहंदा ।।
नृत्य करत श्रीराधा प्यारी नचवत आप
बिहारी उघटत थेईथेई थुगन छंदा ।।२।।
मन आकर्षि लियौ व्रजसुंदरि जयजय रुचिर रुचिर गति मंदा ।।
सखी असीस देत हरिवंशी तैसेई बिहरत
श्रीवृंदावन कुँवरिकुँवर नंदनंदा ।।३।।
भावार्थ:
पूर्णमासी तिथि सम्पूर्ण है , शरद ऋतु का पूर्ण चन्द्रमा है ,
मुरली पर केदारो का स्वर भीभरपूर है , कृष्ण सकल कलारस
पूर्ण हैं , सुखकन्द ने स्त्रियों के साथ रास रचाया है । मोहन जो
औरों का मन मोहने वाले कहलाते हैं , स्वयं तान मान की गति
पर मोह लिए गए हैं , श्रीराधा प्यारी नाच रही हैं स्वयं श्रीकृष्ण
थेई – थेई घूमकर ताल छन्द पर नाच रहे हैं ।व्रज सुन्दरियों का
मन्द रुचिर गति ने मन आकर्षित कर लिया है , वे जयकारे लगा
रही हैं ।हरिवंशजी कहते हैं कि , वृदावन में कुँवरि श्रीराधाजी और
श्री नन्दलाल विहार कर रहे हैं ,सखियाँ आशीर्वाद दे रही हैं ।।