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सर्वत्र विभाषा गोः ........  पाणिनिसूत्र (6।1।122 )  

सर्वत्र संसर्गमात्रम् असदेव...अवगम्यते... ........  शास्त्रदीपिका (विज्ञा.वा.खण्डने )  

सर्वत्र हि... ........  ब्रह्मसूत्र (3।2।4 )  

सर्वथा चेद् हरिकृपा न... ........  तत्त्वार्थदीपनिबन्ध (2।226 )  

सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः ........  चतुश्लोकी (1 )  

सर्वदेवमयो हरि : ... ........  भागवतपुराण (11।23।28 )  

सर्वधर्माणाम् उपपत्ति: उक्ता... ........  ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्यवार्तिक (2।1।37 )  

सर्वधर्मान् परित्यज्य... ........  भगवद्गीता (18।66 )  

सर्वधर्मोपपत्ते: च... ........  ब्रह्मसूत्र (2।1।37 )  

सर्वभूतसुहृच्छान्तो...विषज्जेत वै पुनः... ........  भागवतपुराण (11।7।12 )  

सर्वभूतेषु येन एकं भावम् अव्ययम् ईक्षत ........  भगवद्गीता (18।20 )  

सर्वरूपभगवत्सम्बन्धात्... ........  भागवत सुबोधिनी (2।5।18 )  

सर्वरूपेषु मिथः सर्वधर्माणाम् उपसंहारः ........  ब्रह्मसूत्राणुभाष्य (3।3।7 )  

सर्वलीलाः पुष्टिमध्ये प्रविशन्तीति मे मतिः ........  तत्त्वार्थदीपनिबन्ध (3।6।98-99 )  

सर्ववर्णेषु तुल्यासु... ........  मनुस्मृति (10।5 )  

सर्वशक्तिमयो विष्णुः... ........  विष्णुपुराण (1।22।59 )  

सर्वस्य ईशानः सर्वस्य अधिपतिः... ........  बृहदारण्यकोपनिषद् (5।6।1 )  

सर्वस्य च अहं हृदि संनिविष्टो... ........  भगवद्गीता (15।15 )  

सर्वस्य प्रभवो विप्राः... ........  याज्ञवल्क्यस्मृति (1।9।179-198 )  

सर्वस्य वशी सर्वस्य ईशानः ... ........  बृहदारण्यकोपनिषद् (4।4।22 )  

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